बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

रावण की जुबानी -


मित्रो,
मेरी यह कविता दशहरा विशेष है, मुझे आशा है की आप सभी को बहुत पसंद आएगी !
कविता में मैंने , रावण दहन का सजीव चित्रण करने का भरसक प्रयास किया  है ,
आप को कविता कैसी, बताये......

रावण की जुबानी -
 
जला दिया, मैंने अपनी उस देह को,
कर दिया, सब बुराइयों का अंत,
उस नस्वर देह के साथ,
खत्म हो गयी, मेरी ,
बुराईया और पाप,
हिंसा,द्वेष,इर्ष्या,
चला गया,मेरा,
अंहकार,
का !

अब जो , शेष बचा है,  मुझमे,
वह है,   मेरी पवित्र आत्मा,
जो हो गयी है , शुद्ध, पावन ,
परोपकारी,अहिंसावादी,
जो दुसरो को दे सके ,
आदर व सम्मान ,
जो, त्यागकर,
अभिमान,
को !

तभी तो, प्रसन्न हो, उस  प्रभु ने दिया है, मुझको,
सदा- सदा,अमर हो जाने यह अनोखा वरदान,
लोग मनाते, जन्मदिन यहाँ, तन्हा अपना, 
लेकिन , मेरा तो, दाह-संस्कार भी, यहाँ 
किसी त्यौहार या महान पर्व की भांति 
देखा जाता,लम्बी-कतारे,लगा, 
बैठकर दर्शक-दीर्घा में,
या,नम्बर न आने ,
पर, खड़े, रहकर ही,
जनाब,
आप!

जिसमे लोगो को आनन्द आता, असीम-अपार,
मुर्दों की अस्थियाँ,जो लोग  छुने  से , भी
घबराते है, वें ही लोग होते ही , मेरा 
दाह-संस्कार, टूट पड़ते है, अस्थियो 
को मेरी , उठाने, मची रहती है,
उनमे होड़, गंगा-विसर्जन,
की नही रहती,जरूरत 
अस्थियाँ, रख देते
लोग, घर अपने
यहाँ से ले,
जाकर
मेरी ! 

.........आपका यशपाल सिंह "एडवोकेट"

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