लौटकर अब, ..वो गुजरे जमाने नही आते।
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खाया करते थे.... .....जो कभी कसमे,
साथ मेरे जीने की......साथ मेरे मरने की।
अब भूल गए ..वादों को, निभाने नही आते,
लौटकर अब, ...वो गूजरे जमाने नही आते।
पतझड़ में गिर जाये..गर दरख्तो के पत्ते,
तुम लाख कौशिशें............ करके देख लो,
फूल नये खिलते है, कभी पुराने नही आते,
लौटकर अब, ...वो गूजरे जमाने नही आते।
वो खण्डर समझ बैठे है...पुराने मकान को,
दिन में जहां...कई बार लगते थे, चक्कर।
अब रात में सम्मा भी,.. जलाने नही आते,
लौटकर अब, ...वो गूजरे जमाने नही आते।
समझाते थे...जो महोब्बत होने से पहले,
समझाते थे...जो महोब्बत होने से पहले,
हाल देखकर के दीवानो सा,.. .. ..अपना।
लौटकर अब, ...वो गूजरे जमाने नही आते।
yashpal singh "Advocate"
17-6-2015
10:20pm
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-06-2015) को "गुज़र रही है ज़िन्दगी तन्हा" {चर्चा - 2011} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक