शनिवार, 21 जुलाई 2012

इन्द्रधनुष की बनाकर रस्सी....



इन्द्रधनुष की बनाकर रस्सी....
+++++++++++++++++++{हरियाली तीज विशेष}

इन्द्रधनुष की बनाकर रस्सी !
सावन की,
रिम—झिम फुआरों के बीच !
बादलों की लहराती लताओ में,
मैं, तुम्हारा झूला डालूँ !
सितारें हो,
इन लताओ के फूल !
मन है, के तुम्हे झुलाऊ !
अरमानो के हाथ बढाकर,
झूले तक,
तेरे पहुंचा कर !
झूले दूँ इतने लम्बे,
जितनी दूरी,
चाँद से सूरज के बीच !
हवा में लहराये,
जुल्फ तुम्हारी !
मनाऊ, इस तरह,
हरियाली तीज !

  ..........यशपाल सिंह “एडवोकेट”

रविवार, 27 मई 2012

मैं, तेरे नाम पे......,{गजल}


+++++++ गजल ++++++
   =============

मैं, तेरे नाम पे......, इक सुन्दर सी गजल लिखूँगा,
जानेजाना तुझे मैं....२, इक शायर का ख्वाब लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

अफसराओं को जमीं पर, आने की जरूरत क्या है?
रानी परियों की तुझे मैं...२, मलिकाए हुस्न लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

चाँद सितारों की इस जहाँ को, अब जरूरत क्या है?
नैन सितारों को तेरे मैं...२, मुखड़े को चाँद लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

कब तक यूँ उलझा रहुगां, तेरी इन रेशमी जुल्फों में,
काली नागिन इन्हे मैं...२, सावन की घटा लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

मयखाने जाने की मुझे, अब जरूरत क्या है?
सुर्ख होटों को तेरे मैं...२, छलकते जाम लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

गर खुदा पूछेगा मुझसे, तेरी इबादत का सबब,
मन मन्दिर में तुझे मैं...२, अपने बसा लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,


मौत भी आ जाये मुझे, अब इसकी परवाह क्या है?
अब अपने नाम को मैं...२, तेरे दिल में जिन्दा लिखूँगा !
मैं, तेरे नाम पे......,

मैं, तेरे नाम पे......, इक सुन्दर सी गजल लिखूँगा,
जानेजाना तुझे मैं....२, इक शायर का ख्वाब लिखूँगा !


                  ........यशपाल सिंह “एडवोकेट”
                 लेख तिथि २७-०५-२०१२ ई० 

गुरुवार, 17 मई 2012

गर्मी में, कब्रिस्तान से आती आवाज...


     गर्मी में, कब्रिस्तान से आती आवाज...
  ++++++++++++++++++++++++++++
               पड़ रही है, गजब की गर्मी,
                    गर्मी से तंग है, हाल,
        ऐसे में, कब्रिस्तान से, आई एक आवाज,
         अरे, ओ जिन्दा दुनिया के, इंसानों,
              मुझे तुम से शिकायत है,
              मैं हूँ , गर्मी से परेशान,
                  नही कर सके,
             तुम मेरी कब्र की जगह का,
                 मुनाशिब इंतजाम,
       क्या जमीन कम थी, जो तुमने मेरी कब्र को,
              ऐसी जगह बनाया........जहाँ....
             मुझे तो गर्मी ने परेशान किया,
               मच्छरों में कहाँ, दम था,
               मेरी कब्र वहाँ , बनाई,
                जहाँ नाले का गंद था,..........
             निकली निकम्मी मेरी औलाद,
                     मेरी, छोड़ी सम्पत्ति के बँटवारे लेकर,
             पैदा करते , नित्य नये विवाद,
             पडौसी के लडके को देखो,
                             आकर के कब्रिस्तान,
                                रोज सुबह और शाम
                     हवा झौलता,
                                     हाथ के पंखे से,
                वालिद को अपने,
                पढता पाठ, कुरान,
             अब डर, लगता इस कमरे की,
                 घुटन से मुझको,
                करती गर्मी परेशान,
               आखिर मैं, भी था कभी,
                एक जिन्दा  इंसान,
              भावना थी, मुझमे भी कभी,
                 था, संवेदनावान,
                  खुद भूखा रहकर,
               औलाद को खिलाता था,
             जब, गर्मी में खुद ना सो कर,
               औलाद को सुलाता था,
            हवा झौलता, हाथ के पंखे से,
               मच्छरों को उडाता था,
             न जाने कब, आँख लगती,   
               कब  मैं सो जाता था,
              
                     ......यशपाल सिंह “एडवोकेट”  
                      लेख तिथि १७-०५-२०१२ ई०

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

यादों को बन्दी बनाया है, मैंने !


यादों को बन्दी बनाया है, मैंने !
उनकी,
आँखों में आशियाना था, मेरा !
जिनकी,
बस, मिलते ही यादों को,
जुदाई की सजा,
यादों को, घसीट लाया,
निर्ममता से,
दिल की कठोर दीवारों में !
बन्दी बनाया,  
अँधेरी काल कोठरी में !
करुणा का लगाकर ताला,
विरह खाने में दिया,
कभी अपशब्द,
तो कभी कुण्ठाघात किया,
न जाने, सश्रम कितने काम लिए,
कभी लिखवाई कविताएँ,
कभी नित- नये लेख लिए,
यातनाएँ सहते-सहते,
सिहर उठी यादें,
उमगं, शितिल हुई,
मानो शांत बीहर हुई !
अब, यादें सोचती है.....
न जाने, वो पल कब आएगा,
जब हमे, इस दिल के
बन्दीगृह से कोई आकर,
हमे मुक्ति दिलाएगा !
या फिर.....
हम कैद रहेगे तब तक ...
जब तक, इस देह का अंत होगा,
यह शरीर पंचतत्व में विलीन होगा,
चिता की अग्नि से ..
जलेगी ये, दिल की,
अँधेरी काल कोठरी.....
तब...
यादें हो जायेगी,
सदा के लिए.....
आजाद” !
 ......यशपाल सिंह “एडवोकेट”
लेखतिथि :- २४-०४-२०१२ ई० 

सोमवार, 26 मार्च 2012

अजब है, ये प्रेम कहानी,


अजब है, ये प्रेम कहानी,
कभी लगती है, नयी,
कभी लगती है, पुरानी........
इस भौतिकता के दौर में,
लोगों को, नित नये आवास,
पसंद है,
मैं तुम्हारे,... दिल के,
टूटे खंडरो में रहता हूँ,
कभी बनकर लहू, जिगर का,
धमनियों में बहता हूँ,
भले ही तुम न कहो,
मुझे, पता है,
तुम भी याद, करते हो,
मुझे ,
तन्हाई में अक्सर,
और,
यादों के सितम, सहते हो,
ये तुम्हारी, बदकिस्मती है,
की , तुम बया नही, करते,
जब, किसी नये को,
मकान किराये पर दिया हो,
तो सिकवा-गिला नही करते,
.......”यशपाल सिंह”

बुधवार, 7 मार्च 2012

लो भाई, आ गयी होली,


लो भाई, आ गयी होली,
+++++++++++++++++
नई उमंग, नई तरंग,
जीवन, में बरसाने रंग,
लिए, बहारे संग,
अब, रंग में रंग जायेगीं ,
सूरते, भोली- भाली, 
लो भाई, आ गयी होली.......
+++++++++++++++++
कुछ हाथो में, पिचकारी है,
कुछ हाथो, में है- गुलाल,
कुछ, चेहरे पहिचाने जाते,
कुछ, रंग ने किये बे-पहिचाने,
होली, लिखी टोपी- ओढ़े,
बस, निकल पड़ी है,
मस्तानों कि टोली,
लो भाई, आ गयी होली.......
+++++++++++++++++
नये, एहसास है,
है, नये जज्बात,
मौसम का भी, अनोखा साथ,
लगता है,
होली के बहाने, होगी उनसे मुलाकात,
कुछ पर रंग है, रिश्तों का,
कुछ , पर भंग का रंग,
किसी के सर चढ़, आशिकी बोली,
लो भाई, आ गयी होली.......
+++++++++++++++++
मेरे गावं कि होली में,
पहले, चले गुलाल,
फिर, पानी के --- रंग,
उसके बाद, ना पूछो,
काला तेल, और कीचड,
बिगड देता है --- ढंग,
मैं, ठीक लेटा हूँ, कुछ शराबी,
नाली में, पड़े-पड़े देते हैं, बोली,
लो भाई, आ गयी होली.......
+++++++++++++++++
सोच, रहा था, मैं किसी को,
आखिर, मेरी लग गयी आँख,
स्वप्न देखा,.......
होली का दिन था,
था, अच्छा बहाना,
प्रेमिका थी, मेरे साथ,
गुलाल, लगाया लाल गालो पर उसके,
फिर, कि प्रेम कि प्यारी-प्यारी बात,
आगोश में था, मैं उसके,
खुशी कि हँसी, होठो पर उभर आई,
झट से जगा दिया,
सोते-सोते दांत ही, पाड़ते रहोगे, कब-तक,
ऐसा, श्रीमती जी बोली,
लो भाई, आ गयी होली.......
.........यशपाल सिंह “एडवोकेट”
लेखतिथि:- 07-03-2012

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

किसी खास के लिए........ ये चार पंक्तियाँ,


किसी खास के लिए........ ये चार पंक्तियाँ,

वो, समझे कि,
मैं, उन्हें भंवर में छोड़,
खुद साहिल पर पहुंच गया,
भ्रम, था ये उनका,
रहे वो अनजान,
वरन, मैं भी  भंवर में था,
वो भी  भंवर थे,
फर्क सिर्फ इतना था कि,
कुछ  दूरी पर फंसे थे,
जो,
उन्हें साहिल पर टहलता  नजर आया,
वो , मैं नही कोई, और था,
उन्होंने मुझे बेवफा,
समझ लिया,
थे,खुद नादाँन,

........यशपाल सिंह

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

जवानी की दहलीज पर प्रथम कदम .... भाग -1


जवानी की दहलीज पर प्रथम कदम .... भाग -1
+++++++++++++++++++++++++++++++++++=
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
जब से उन्होंने, कदम रखा है,
जवानी के गलियारे में,
तब से, मीठे-भारी,
स्वर, होने के उनके,
 आसार नजर आते है,............
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
++++++++++++++++++++++++++++++
चाल कुछ मस्त सी है,
टहलने में पश्त सी है,
शरीर में अलग लचक सी है,
बस,
छु लिया, जवानी के पाले को,
ऐसे, मुझे ......
आसार नजर आते है,
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
++++++++++++++++++++++++++++++
जहां से वो गुजरते है,
वहाँ........ पर,
हवाए, बदलने लगी है,
हवाओ, अजब सी खुशबु है,
जो, कभी पहले न थी,
इस, भीनी खुसबू को,
शायद, फूलो की खुशबु समझ,
पागल हो जायेगे,
भौरे... ऐसे आसार नजर आते है,
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
++++++++++++++++++++++++++++++++++
 जब,
पहले, आयने में ,
निहारते, थे चेहरा अपना,
तब में और अब में फर्क है,
लगता है] सच हो गया,
उनका सपना,...
अब, उनके रुखसार के आगे,
आयने भी शर्मशार... नजर आते है,
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
+++++++++++++++++++++++++++++
लगता है,
मन और शरीर में आ गयी ,
परिपक्वता,
अब वे, हुए समझदार नजर आते है,
मन चंचल और तेज हुआ,
देह हो गयी है, सुढोल,
कुछ, उभार नजर आते है,
तभी तो..... कुछ,
बदले – बदले से सरकार नजर आते है,
आज-कल बदले- बदले से उनके, आसार नजर आते है !
.....यशपाल सिंह