ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम,
तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
1
हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक,
तेरे चरण चूमता सागर,
श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ
वाणी में है गीता का स्वर।
1
ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
1
हरे-भरे हैं खेत सुहाने,
फल-फूलों से युत वन-उपवन,
तेरे अंदर भरा हुआ है
खनिजों का कितना व्यापक धन।
1
मुक्त-हस्त तू बाँट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
1
प्रेम-दया का इष्ट लिए तू,
सत्य-अहिंसा तेरा संयम,
नयी चेतना, नयी स्फूर्ति-युत
तुझमें चिर विकास का है क्रम।
1
चिर नवीन तू, ज़रा-मरण से - मुक्त, सबल उद्दाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
1
एक हाथ में न्याय-पताका,
ज्ञान-द्वीप दूसरे हाथ में,
जग का रूप बदल दे हे माँ,
कोटि-कोटि हम आज साथ में।
1
गूँज उठे जय-हिंद नाद से सकल नगर औ' ग्राम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
मंगलवार, 25 जनवरी 2011
बुधवार, 19 जनवरी 2011
एक साँवली लड़की
एक साँवली लड़की
शांत, स्निग्ध
धूप में बैठी हुई
अपने घुटनों पर झुकाए सर
सुखाती हुई
गीले बालों को
वह सद्यस्नाता
साँवली लड़की।
छिपाए है
अपने पाँव
गर्म शाल में तह किए।
अधूरी सी मुस्कान
वह लड़की उदास है
जाड़ा बीत जाएगा
इस बार भी
नहीं लगेगी महावर
उसके पाँवों में
नहीं गूँथा जाएगा
उसका माथा
सारी सहेलियों के हाथों से
और न कोई
गीत ही गाया जाएगा
उसकी विदाई के लिए।
शांत, स्निग्ध
धूप में बैठी हुई
अपने घुटनों पर झुकाए सर
सुखाती हुई
गीले बालों को
वह सद्यस्नाता
साँवली लड़की।
छिपाए है
अपने पाँव
गर्म शाल में तह किए।
अधूरी सी मुस्कान
वह लड़की उदास है
जाड़ा बीत जाएगा
इस बार भी
नहीं लगेगी महावर
उसके पाँवों में
नहीं गूँथा जाएगा
उसका माथा
सारी सहेलियों के हाथों से
और न कोई
गीत ही गाया जाएगा
उसकी विदाई के लिए।
बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।
खजाना भरने वालों को
भला कहां सम्मान मिल पाया,
चमके वही लोग
बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।
——-
शरीर से रक्त
बहता है पसीना बनकर
कांटों को बुनती हुई
हथेलियां लहुलहान हो गयीं
अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही
रोटी खाते बाद में
पहले खजाना भर जाते हैं।
सीना तानकर चलते
आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर
लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का
वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।
———-
अब लुटेरे चेहरे पर नकाब नहीं लगाते।
खुले आम की लूट की
मिल गयी इजाजत
कोई सरेराह लूटता है
कोई कागजों से दाव लगाते।
वही जमाने के सरताज भी कहलाते।
चौराहे पर चार लोग आकर
चिल्लाते जूता लहरायेंगे,
चार लोग नाचते हुए
शांति के लिये सफेद झंडा फहरायेंगे।
चार लोग आकर दर्द के
चार लोग खुशी के गीत गायेंगे।
कुछ लोगों को मिलता है
भीड़ को भेड़ों की तरह चराने का ठेका,
वह इंसानो को भ्रम के दरिया में बहायेंगे।
सोच सकते हैं जो अपना,
दर्द में भी नहीं देखते
उधार की दवा का सपना,
सौदागरों और ढिंढोरची के रिश्तों का
सच जो जानते हैं
वही किनारे खड़े रह पायेंगे।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,
भला कहां सम्मान मिल पाया,
चमके वही लोग
बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।
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शरीर से रक्त
बहता है पसीना बनकर
कांटों को बुनती हुई
हथेलियां लहुलहान हो गयीं
अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही
रोटी खाते बाद में
पहले खजाना भर जाते हैं।
सीना तानकर चलते
आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर
लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का
वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।
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अब लुटेरे चेहरे पर नकाब नहीं लगाते।
खुले आम की लूट की
मिल गयी इजाजत
कोई सरेराह लूटता है
कोई कागजों से दाव लगाते।
वही जमाने के सरताज भी कहलाते।
चौराहे पर चार लोग आकर
चिल्लाते जूता लहरायेंगे,
चार लोग नाचते हुए
शांति के लिये सफेद झंडा फहरायेंगे।
चार लोग आकर दर्द के
चार लोग खुशी के गीत गायेंगे।
कुछ लोगों को मिलता है
भीड़ को भेड़ों की तरह चराने का ठेका,
वह इंसानो को भ्रम के दरिया में बहायेंगे।
सोच सकते हैं जो अपना,
दर्द में भी नहीं देखते
उधार की दवा का सपना,
सौदागरों और ढिंढोरची के रिश्तों का
सच जो जानते हैं
वही किनारे खड़े रह पायेंगे।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,
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