बुधवार, 19 जनवरी 2011

बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।

खजाना भरने वालों को

भला कहां सम्मान मिल पाया,

चमके वही लोग

बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।

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शरीर से रक्त

बहता है पसीना बनकर

कांटों को बुनती हुई

हथेलियां लहुलहान हो गयीं

अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही

रोटी खाते बाद में

पहले खजाना भर जाते हैं।

सीना तानकर चलते

आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर

लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का

वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।

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अब लुटेरे चेहरे पर नकाब नहीं लगाते।

खुले आम की लूट की

मिल गयी इजाजत

कोई सरेराह लूटता है

कोई कागजों से दाव लगाते।

वही जमाने के सरताज भी कहलाते।


चौराहे पर चार लोग आकर

चिल्लाते जूता लहरायेंगे,

चार लोग नाचते हुए

शांति के लिये सफेद झंडा फहरायेंगे।

चार लोग आकर दर्द के

चार लोग खुशी के गीत गायेंगे।

कुछ लोगों को मिलता है

भीड़ को भेड़ों की तरह चराने का ठेका,

वह इंसानो को भ्रम के दरिया में बहायेंगे।

सोच सकते हैं जो अपना,

दर्द में भी नहीं देखते

उधार की दवा का सपना,

सौदागरों और ढिंढोरची के रिश्तों का

सच जो जानते हैं

वही किनारे खड़े रह पायेंगे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,

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